इतिहास और मज़दूर
मेरे प्रांत का मज़दूर, बेटे को कंधे पर बिठाए
अपनी बची-खुची पूँजी लिए, पत्नी के साथ चला जा रहा है।
वह चलता ही चला जा रहा है।
मैंने उससे पूछा,
इस तरह वह कितने दिनों से चल रहा है?
मेरे सवाल पर वह कुछ सोचने लगा, फिर बोला
आज तक यह प्रश्न उससे कभी किसी ने नहीं पूछा।
उसने भी नहीं पूछा अपने आप से। उसे बस इतना याद है कि
वह अपने पिता के साथ भी ऐसे ही चलता था।
तब हाईवे नहीं, सड़कें कच्ची हुआ करती थीं।
वह अपने दादा के साथ भी ऐसे ही चलता था।
तब सड़कों की जगह खेत हुआ करते थे, और आरियां सड़कें।
इतना कह, वह फिर से चलने लगा।
जाते-जाते उसने बताया कि उसके परिवार में
उसके परदादा के पहले भी लोग ऐसे ही चलते थे।
उस समय कारखाने नहीं थे,
नाहीं उनके पास खेत, इसलिए
वे पानी पर चलते-चलते कहीं और चले गए।
उन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता था
वर्ना वे चिट्ठी भेज कर जरूर बताते
कि समुन्दर पर आदमी कैसे चलता है
बिना पांवों के निशान छोड़े। इस तरह,
एक जमाना हो गया है उसे चलते चलते।
एक ज़माने में अब कितने दिन होते हैं, उसे नहीं मालूम। - कल्पना सिंह © Kalpana Singh (Kalpna Singh-Chitnis)
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