किराया माफ़: एक कविता भारत के प्रवासी मज़दूरों के लिए - Kiraya Maaf: A Poem for the Migrant Workers
किराया माफ़
सारी दुनिया थम जाती है जब
वह चलता है सड़कों पर
जब कुछ भी नहीं चलता,
वह तब भी चलता है
जैसे चलती है क़ायनात,
जैसे घूमती है पृथ्वी,
जैसे चलते हैं बादल
एक गांव से दूसरे गांव,
एक शहर से दूसरे शहर,
एक राज्य से दूसरे राज्य,
और एक देश से दूसरे देश।
वह चलते-चलते ही सुस्ताता है,
चलते-चलते लेता है झपकियां,
वह एक ऐसी मशीन है जिस पर जंग नहीं लगता।
वह जीवाणुओं और विषाणुओं से संक्रमित होने से नहीं डरता
अपनी प्रतिरोधक क्षमता से वह हर लड़ाई जीत लेता है,
सिर्फ हार जाता है तो भूख से, सियासत से,
षडयंत्रों से, और प्रेम की अनुपस्थिति से।
वह एक गरीब इंसान है
हमारी भाषा नहीं बोलता,
पर समझने की कोशिश करता है।
उसकी गठरी और सूटकेस में क्या है
हम यह जानने के लिए उत्सुक हैं।
हम उससे उन्हें खोलने का अनुरोध करते हैं
वह सकुचाता है, फिर खोल कर दिखाता है
और हम सब को गलत साबित करता है!
मज़दूर की गठरी में पड़ी सूखी रोटी
उसके गांव की धरती है, और नमक, गुड़ का ढेला
उसके सूटकेस में पड़ी फटी कमीज और पतलून के पीछे हमारा नंगा समाज है।
हम जिनके लिए बसों और ट्रेनों की कर रहे हैं गुहार,
सेंक रहे हैं जिनकी भूख के अलाव में अपनी राजनीति की रोटी,
जिसकी मजबूरी और ग़ुरबत को बार-बार दिखा कर हम बढ़ा रहे हैं अपनी रेटिंग्स
वह बेरोजगार मज़दूर अब भी हमारे लिए
कर रहा है मज़दूरी, फैक्ट्री के बजाए हाईवे पर
वह भूखे पेट है, पर हम सबका पेट भर रहा है
हम सभी उसके कंधे पर सवार बैताल की तरह
अपने-अपने मुक़ाम पर पहुँचने के लिए अधीर हैं।
और वह ढ़ो रहा है सारा देश
अपने पांवों के हजार-हजार पहियों पर
टूटी पटरियों पर चलती हुई रेलगाड़ी की तरह,
अपने जैसे जाने कितने डब्बों को जोड़े, आज से नहीं कब से।
और मुस्कुराते हुए उसने किया है - हम सब का किराया माफ़।
- कल्पना सिंह
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