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Five Hindi Poems of Kumar Mukul Translated by Shivam Tomar





 

The Best Letters


The best letters are not necessarily those

with the neatest handwriting

or the simplest language.

Rather, the best letters are the ones

that are legible despite their messy script

and convey meaning even when read in haste.

They may have fuzzy words

but can still reflect a face.


The best letters aren't the ones

that are timely received and read right away,

but the ones that make us jump for joy all day long,

the ones we treasure, keep to ourselves

until we read them in the privacy of the evening

by lamplight.


The best letters are also the ones

that were sent but never reached us,

the ones we anticipate

but are lost in transit,

and the ones that can only be read

in our dreams.


सबसे अच्‍छे खत


सबसे अच्‍छे ख़त वो नहीं होते

जिनकी लिखावट सबसे साफ़ होती है

जिनकी भाषा सबसे खफीफ होती है

वो सबसे अच्‍छे ख़त नहीं होते


जिनकी लिखावट चाहे गडड-मडड होती है

पर जो पढ़ी साफ़-साफ़ जाती है

सबसे अच्‍छे ख़त वो होते हैं

जिनकी भाषा उबड़-खाबड़ होती है

पर भागते-भागते भी जिसे हम पढ़ लेते हैं

जिसके हर्फ़ चाहे धुंधले हों

पर जिससे एक चेहरा साफ़ झलकता है

जो मिल जाते हैं समय से

और मिलते ही जिन्‍हे पढ़ लिया जाता है

वो ख़त सबसे अच्‍छे नहीं होते

सबकी नज़र बचा जिन्‍हें छुपा देते हैं हम

और भागते फिरते हैं जिसकी ख़ुशी में सारा दिन

शाम लैंप की रोशनी में पढते हैं जिन्‍हें

वो सबसे अच्‍छे ख़त होते हैं

जिनके बारे में हम जानते हैं कि वे डाले जा चुके हैं

और जिनका इंतज़ार होता है हमें

और जो खो जाते हैं डाक में

जिन्‍हें सपनों में ही पढ पाते हैं हम

वे सबसे अच्‍छे ख़त होते हैं।



Pools of Moonlight


The sight of the moon leaves me

uncertain of my emotions.

I impatiently ask a child standing nearby,

"Tell me, where is the moon?"


The child first observes his shadow

before gesturing towards the sky.

He shows me the pools of moonlight

on the ground.


This makes me realize,

when we talk about the moon,

we talk about the things it illuminates.



चांदनी का टीला


चांद को देखते हुए

मैं तय ही नहीं कर पाता

कि खुश हूँ या उदास

झुंझलाहट में

पास खड़े बच्चे से पूछता हूँ

बता तो चांद कहाँ है

पहले वह अपनी छाया देखता है

फिर इशारा करता है आकाश की ओर

और ज़मीन पर उभरे चांदनी के टीलों को दिखाता है

तब मुझे लगता है

कि चांद की बात करते हुए हम

चांदनी में डूबी चीज़ों की बात करते हैं।



Mountains

If gravity is inherent to land

why do the mountains pull us?

Everyone is running towards the mountains.

Clouds are dashing toward the mountains

despite knowing that they will perish

the moment they meet them.

The wind is blowing toward the mountains

only to touch them and

change its course.

The sun rushes to reach the mountains

before anybody and anything,

trying to light its darkest ridges.


For the bright moonlight too,

mountains are a leisure place

although it makes the moonlight look hazy.


But, see those trees

that are climbing upwards

to reach the mountains,

to ground themselves there.

Anyone can climb a mountain,

but only those

who have roots long enough

to pierce their rock-filled chests

and smash them to dust,

can stay there.

If you try to fly like a cloud

to reach out to mountains,

It will send you back

like a river

with a handful of sand.



पहाड़


गुरूत्‍वाकर्षण तो धरती में है

फिर क्‍यों खींचते हैं पहाड़

जिसे देखो

उधर ही भागा जा रहा है


बादल

पहाडों को भागते हैं

चाहे

बरस जाना पडे टकराकर

हवा

पहाड़ को जाती है

टकराती है ओर मुड जाती है

सूरज सबसे पहले

पहाड़ छूता है

भेदना चाहता है उसका अंधेरा

चांदनी वहीं विराजती है

पड जाती है धूमिल


पर

पेडों को देखे

कैसे चढे जा रहे

जमे जा रहे

जाकर


चढ तो कोई भी सकता है पहाड

पर टिकता वही है

जिसकी जडें हो गहरी

जो चटटानों का सीना चीर सकें

उन्‍हें माटी कर सकें


बादलों की तरह

उडकर

जाओगे पहाड तक

तो

नदी की तरह

उतार देंगे पहाड

हाथों में मुटठी भर रेत थमा कर।


Van Gogh's Ursula


"Do I have to marry everyone I fall in love with?"

Ursula asks, frustrated,

and flees,

calling Vincent a redheaded idiot.


Mornings are always moist

yet burning with energy,

while evenings are always lovely,

but with a tinge of sadness.


Love comes

breaking through the layers of soil,

unleashing

sprouts staring into nothingness,

playing and running around mischievously,

neatening tangled locks of hair with kisses,

wiping away all sweat with a scarf,

leaving the structure of our constrained language marveling

at its countless debates.


Like a small bird testing its wings,

it is filled with doubts that

we constantly strive to preserve or extinguish.

We often want to build walls

to shield it from the chaos of this world,

unaware that

love is a grand aspiration

that can break through walls and barriers.


In the end, we keep trying to love

while fighting to survive,

and a dream of waking up from sleep shatters.


Every Vincent has an Ursula

who thinks he's crazy, blunt, and stupid,

and it's only Vincent who sees his thoughts

as his lover

and himself as much less important

than his thoughts.

It is Vincent who makes and breaks promises,

and wanders from door to door

plagued by the greatest stupidities.


Teachers have always been found

by offering them accommodation and food,

and even now, what does Vincent need!

Remembering does not cost anything.


Remembrance comes at the cost of a lifetime—

a life that crumbles before our eyes while

a long sigh fades away.


Love, as Isadora says,

is an ailment of the soul rather than the body.

A fever that burns all the blemishes,

transforming lovers into warriors,

priests into scholars,

making their eyes sparkle and language tingle.

Then, within all Vincents,

an Ursula awakens,

and they start singing

beautiful prayers and melodies.


Even the most ruthless dictators

still harbor

a withering Ursula within themselves.


Sometimes this fever breaks,

but by then it has already been late.

True resolve has turned into fake whims.


In their determination to save Ursula,

they kill the Ursula within themselves.


For Vincent,

Ursula was a blue-eyed radiance,

dancing in joy,

like those rare mornings

that pass but stay with us forever.

And then, when the elusive light of the world

blinds us and we are lost

in the search for a moment of light that hides within,

it flickers—like a tangible pain

of not being able to transform

those moments of golden light

into the cycles of light

of mornings and evenings.


Vincent thinks of Jesus and ponders

that anything can be found in books

in a more meaningful and appealing way.

There is no despair without hope.

When Ursula gets lost in the book of life,

she comes alive in Vincent's blood,

in his gaze, in his gestures—

and then she is recreated on canvases,

over and over,

disguised under different appearances,

in a more authentic form than the original.


वॉन गॉग की उर्सुला


क्‍या

हर प्‍यार करने वाले से

शादी करनी होगी मुझे

पूछती है-- उर्सुला

और भाग खड़ी होती है

विन्‍सेंट को पुकारती

लाल सिर वाला बेवकूफ़


सुबहें होती आई हैं

शबनम से नम

और आग से भरी हुईं

हमेशा से

और शामें

उदास-ख़ूबसूरत


ग़ुलाम हो चुकी भाषा के व्‍याकरण को

अपनी बेहिसाब जिरहों से लाजवाब करता

मिटटी की परतें तोड़

फेंकता अंकुर आज़ाद

कि ख़ब्‍तख़याली के

टकटकी बांधता, खिलखिलाता, भागता

बदहवास

बिखरती लटें संवारता, चुंबनों से

दुपट्टों से पसीना पोंछता

आता है प्‍यार -

चूजे-सा पर तोलता

भरता आशंकाओं से

कि उसकी रक्षा या हत्‍या को

आतुर हो उठते हम

कि बाज-बखत

खड़ी करनी चाहते दीवार

उसे बचाने की

दुनियावी जद्दो-जहद से

इससे गाफ़िल कि वह ख़ुद

एक बुलन्‍द निगाह है -

दरो-दीवार को भेदती - फिर

अन्‍तत: चूक कर

दुहराते हैं हम - प्‍यार

और दुश्‍वार करते हैं जीना

और टूटता है एक सपना

नींद में जागे का।


हर विंसेंट की

एक उर्सुला होती है

उसे दीवाना-मुँहफट-सिरफिरा कह

उसके मुँह पर किवाड़ भेड़ती

और होता है वह

एक विन्‍सेंट ही

ख़्याल को सनम समझता

ख़ुद को

ख़्याल से भी कम समझता

प्रतीज्ञाएँ करता-तोडता

महान मूर्खताओं से चिढ़ता-चिढ़ाता उन्‍हें मुँह

भटकाता ख़ुद को दर-ब-दर


रहने और खाने की व्‍यवस्‍था पर

अध्‍यापक मिल जाते हैं हमेशा से

और आज भी

फिर क्‍या चाहिए था विन्‍सेंट को

याद करने के पैसे तो नहीं लगते


यादें तो बस

जीवन मांगती हैं

एक निगाह में

एक बैठती आह में

बिखरता जीवन।


इजाडोरा कहती है -

प्रेम

शरीर की नहीं

आत्‍मा की बीमारी है

यह ज्‍वर

जला डालता है सारे कलुष

प्रेमी बन जाते हैं

योद्धा-पादरी-शिक्षक

यह ज्‍वर भर जाता है

आँखों में चमक

भाषा में खुनक

फिर तमाम विन्‍सेंटों के भीतर

उनकी उर्सुलाएं जाग पड़ती हैं

बोलने लगते हैं वो

महान प्रार्थनाएं प्रयाण-गीत पाठ


दुनिया के क्रूरतम तानाशाह भी

अपने भीतर समेटते रहते हैं

एक बिखरती उर्सुला


कभी-कभी ज्‍वर टूटता है

तब तक देर हो चुकी होती है

सच्‍ची जिदें

बदल चुकी होती हैं

झूठी सनकों में


उर्सुला को बचाने की ज़िद्द में वो

मार चुके होते हैं

अपने अंदर की उर्सुला को ही


जीवनानंद में नाचती

नीली आँखों का प्रकाश थी उर्सुला

विन्‍सेंट के लिए

उन कुछेक शामों-सुबहों की तरह

जो होते-बीतते

बैठ जाती हैं चुपके से भीतर

फिर जब दुनिया का मायावी प्रकाश

चौंधियाता है हमें

तो खो जाते हैं हम

कहीं भीतर दुबके

प्रकाश-पल की तलाश में

टिमटिमाता रहता है जो-- अविच्छिन्‍न

एक टीस की तरह

कि उन प्रकाश-पलों को फिर-फिर

बदला नहीं जा सकता

सुबहों व शामों के प्रकाशवृत्तों में


विन्‍सेंट याद करता है-- ईसा को

कि हरेक चीज़ मिल जाती है

किसी भी क़िताब से

ज़्यादा सम्‍पूर्ण और सुन्‍दर रूप में


कि कोई भी दुख

बिना उम्‍मीद के नहीं आता


हाँ

सचमुच की उर्सुला जब

खो जाती है कहीं

ज़िन्‍दगी की क़िताब में

तब

जीवित होने लगती है वह

विन्‍सेंट के लहू में-

निगाह में उसकी

उसके इशारों में-

फिर-फिर

रची जा रही होती है वह कैनवसों पर

मिथ्‍या आवरणों के भीतर

अपने मूल से भी

खरे रूप में।


September 11


It was their own towering forehead

that was collapsing at their own feet

causing them to flee in fear.


At that moment,

all they wanted was to escape their creased forehead

and the cosmic fury of their own third eye.


It was not Hiroshima-Nagasaki,

nor was it Vietnam-Iraq,

it was their own omnivorous, mighty hand

that was smashing its own face.


They had their own weapons,

the gunpowder was also from their own factories,

they had their own trenches dug, and ladders fell short;

their feet were now drowning in the waters of helplessness.


Newton's third law of motion,

which they had sold countless times,

was being applied today

for the first time in their own home.

It was being sold by their own hands.


They had their own all-seeing eye,

the cameras were theirs too,

that were showing everything to the world.

They had filmed countless tragedies,

and today they themselves were watching that film.



ग्‍यारह सितंबर


यह उनका अपना ही विशाल माथा था

जो भरभराकर ढहा आ रहा था

ख़ुद उन्हीं के क़दमों में

और भयाक्रांत भाग रहे थे वे

भाग जाना चाह रहे थे

अपने ही माथे की तनी भृकुटी से

व अपनी ही तीसरी आँख के

वैश्विक प्रकोप से


हिरोशिमा-नागासाकी नहीं था वह

वियतनाम-इराक भी नहीं था

यह उनका अपना ही

सर्वग्रासी, महाबलशाली हाथ था

जो अपना ही मुँह जाब रहा था


उनके ही हथियार थे

बारूद भी उनके ही कारखानों की थी

उनकी अपनी ही खोदी खाइयाँ थीं

और सीढ़ियाँ कम पड़ गई थीं

और उनके पाँव

लाचारी के जलजले में

धँसे जा रहे थे


न्यूटन की गति का तीसरा नियम था यह

जिसे असंख्य बार बेच चुके थे वह

पर जो आज उनके ही घर में

लागू हो रहा था पहली बार

बिक रहा था उनके ही हाथों

उनकी अपनी ही सर्वद्रष्टा आँख थी

कैमरे भी उनके ही थे

जो दुनिया को सब-कुछ दिखा रहे थे


अनगिनत त्रासदियों को

फ़िल्मा चुके थे वे

आज वह फ़िल्म

वे ख़ुद देख रहे थे।



 


Kumar Mukul (Poet)

Born in 1966 and holding a Master's degree in Political Science, Kumar Mukul is a multi-talented intellectual with a versatile career spanning over three decades. He initially embarked on his professional journey in 1989 as a faculty member at Amaan Women's College in Patna, where he enriched young minds with his expertise in the field of political science. In a significant career shift, Kumar ventured into journalism, serving in a variety of roles from Correspondent to Resident Editor for leading newspapers such as Amar Ujala and Rajasthan Patrika. Over the years, he has established himself as a credible and analytical journalist, bringing nuanced perspectives to the forefront of Indian media. Kumar has published six collections of poetry that have garnered critical and popular acclaim. His notable literary contributions include seminal works like "Hindustan Ke 100 Kavi" and "Ved Vedang, Kuch Notes." His works showcase a perfect blend of cultural insight and scholarly depth, earning him a unique place in modern Indian literature.


Shivam Tomar (Translator)

Shivam Tomar, born in 1995, is a Gwalior-based poet and writer who has carved a niche for himself in the Indian literary scene. He serves as an Editor for PoemsIndia, an esteemed organization dedicated to curating and promoting contemporary Indian poetry. Shivam's own poetic and editorial work has been widely recognized. His poetry has been featured in a variety of print and online platforms, including Gulmohar Quarterly, Setu Pittsburgh, Parinde, Vishwarang, Bahumat, Magadh, and Sankaleen Jammat, among others.







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